कहना ये चाहिए कि नया साल है। इस बार क्या बदलने का वादा करना है। सुनने का। देर तक सुनने का। कम कहने का। और क्या? खुद को बेहतर बनाने की दलीलें कब तक दें अगर थक ना जाएं तो? दूर कोई आवाज पहुंचेगी तो आशा पलटकर देखेगी और हमें बुलाएगी कि गले लगा लो।
कोई भी यात्रा यूंही शुरू नहीं होती। बहुत से कदमों की जरूरत इकट्ठा हो जाती है शरीर में। तब कहीं जाकर ये पैर उठता है घर की दहलीज लांघने को। दूर... इतना दूर कि अपने नाम की पुकार कहीं न सुनाई दे...
सारी लड़ाई इसकी है कि सामना न करना पड़े। लड़ाईयों का। बहसों का। कुंठा का। घुटन का जो जीतेजी मार देती है। मेरे शब्द पैने होते जा रहे हैं। क्या ये सही तरीका है नया साल शुरू करने का? क्या इस बार मेरी कविता में गुस्सा होगा? मेरी कविता... सारी लड़ाई अहंकार की होती जा रही है... मेरी... मेरा दुख...
पर इससे मुक्ति कहां है? U g कहते हैं विचार ही सारी समस्या की जड़ है। विचार को छोड़ना भी नहीं है... बस कुछ होना है। उस कुछ होने के इंतजार में कितने दरवाजे खटखटाएं जाएं? मैं देखता हूं जीसस का इंसान होना एक फिल्म में और ढेर से सवाल। उन्होंने भी खुदको एक गोले में बंद किया था 10 दिनों के लिए और सामने आए थे शैतान, लालच शरीर और जाने क्या क्या। ठीक ऐसे ही बुद्ध ने। आखिर में सबसे हारकर सब हो गए जिद्दी और बैठ गए... उन्होंने आगे बढ़ना त्याग दिया। तुम बढ़ो आगे... मेरे भीतर से... तुम चलते रहो, ये दुनिया चलती रहे, मैं इसमें अपना योगदान बिलकुल नहीं दूंगा... इस समीकरण में रहूंगा भी पर निर्जीव...
क्या तब झुकते हैं ईश्वर? तब मिलता है वो जिसका इंतजार है... क्या मुझे कहीं ठहरकर रुकने की जरूरत है? लेकिन कहां... मैं बहुत दिन रुकना चाहता हूं। देर तक... ऐसा रुकना कि बाकी सब निर्जीव हो जाए... या रहे भी तो मेरे लिए मृत... आशा सिर्फ इतनी है कि मुझे वो मिले जिसका मुझे इंतजार है...