Sunday, January 22, 2023

बीतना

कुछ बीत नहीं रहा सखी। समय अटका पड़ा है उस एक क्षण में जब सब कुछ घट जाना था लेकिन नहीं घटा। और उस अटके पड़े समय में अब सड़ने की बू आ रही है। और राख। राख जो उससे पहले बीता था और उसके बाद बीता है। पर समय वहीं का वहीं है। घड़ी चलती रहती है। समय मुंह ताकता रहता है पर आगे नहीं बढ़ पाता।

सच कहूं तो मुझे पूरा जाना था। पर मैं अधरस्ते में लौट आया। वहां तक पूरा जाने को निचोड़ने मेरे बस में नहीं था। ऐसा क्या होता है कि हम जाते जाते कदम रोक लेते हैं। ना पकड़ने वाली आंखों से देखते हैं, सिर्फ छूती सी निगाहों से, जैसे डर हो कि अगर जरा सा जोर से देख भी लिया तो पाप हो जायेगा और फिर आंख फेरकर लौट आते हैं। लौटना कहां? कौनसी जगह? लौटने को कोई जगह बची है? या ये भी अधरासते की एक दूसरी छाया है। मैं अधरस्तों पर सफर कर रहा हूं सखी। मैं या तो आगे जाऊं या वापस लौट जाऊं... वापसी के लिए अब कुछ है नहीं और आगे बढ़ने की ताकत में दिलचस्पी खत्म है...

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वो कौनसा क्षण होता है जब मालूम पड़ता है कि कोई नहीं बचा सकता। एक ऐसे सत्य की तरह जिसे बिलकुल भी नकारा नहीं जा सकता। बड़े से बड़ा दार्शनिक, वैज्ञानिक या फिर सत्य का खोजी भी अपनी किसी भी दलील से इस सत्य से मुंह नहीं मुड़वा सकता। फिर ऐसे सत्य का क्या करें? 

वो बहुत देर तक अपने कमरे की छत को देखता रहा। कुछ एक किताबों के पन्ने में गुदे अक्षर पढ़ता रहा जो उस समय बिल्कुल सूने नजर आ रहे थे। उसके आस पास की जगह की तरह। जीवन की तरह। कहीं कोई आशा नहीं। सिर्फ एक... इच्छा। उसे याद आया उसी दोपहर वो अपने एक दोस्त के साथ हाल के बाहर बैठा था। टूटी बेंच; जनवरी की खुली धूप। चमचमाते पेड़। और बहुत देर की चुप्पी के बाद उसके मुंह से टूटे से स्वर निकले थे - ऐसा नहीं है कि मैं मरना चाहता हूं। पर जीने में कोई दिलचस्पी भी नजर नहीं आ रही। क्या दिलचस्पी जरूरी है जीने के लिए? और अगर जरूरी है तो फिर अभी इस ऊब, पीड़ा और टीस से मुक्ति क्यों खोज रहा है। वो बहुत लड़ना चाहता था, इतना कि थककर हा जाए और देर तक रोता रहे, अपनी हार पर, अपने लड़ने पर... अपनी अनिच्छा पर। पर कुछ भी मुमकिन है क्या...

वो उम्र का कौनसा पड़ाव होता है जब लगता है कुछ भी मुमकिन नहीं है... अनिच्छा भी अपने पूरे रूप में मुमकिन नहीं। इच्छा की खोज भी नहीं। एक जड़ता जो शायद पेड़ महसूस करते होंगे। उसे अपने पर हँसी आ गई। वाह रे इंसानी फितरत। अपने मन के ढांचे से ही पेड़ों, जानवरों, पक्षियों और बाकी सब को देखना... नहीं वो अलग हैं। इसे मानो, इसे देर तक टटोलो... इस सत्य का कसैला स्वाद अपनी जुबान पर महसूस करो... पर ये क्या तुम प्यासे हो!!

देर तक बोतल को टटोलता रहा। फिर उठकर चलने लगा। खाली सड़क पर। रात हो गई थी। रात है। वो कब अपने कमरे से ये सब सोचता हुआ ठंडी सड़क पर चलने लगा था याद ही नहीं। एक पल से दूसरे पल की दूरी के बीच बहुत सी खाली जगह पड़ी थी जहां दूर दूर तक किसी भी जिए हुए की छाया नहीं। ठंड थी तो उसने विंडचीटर पहनी थी जिसकी जेबों में हाथ अपनी ही गर्मी से पसीज रहे थे। उसने हाथ बाहर निकाले, वो हवा से और ठंडे हुए और उसने बहुत देर बाद अचानक से जाना कि वो ठिठुर रहा है... ये अचानक वैसे ही हुआ जैसे कुछ देर पहले इस बात का आभास कि वो अपने कमरे पर नहीं है। खुली सड़क पर। अपने चेहरे को टटोलते हुए वो चुपके से आंखों को टटोलने लगा जैसे कि डर हो कि अगर आंखों को पता चल गया तो वो पानी बहाना बंद कर देंगी। वहां सूखा था। असीम सूखा। उसे समझ नहीं आया इस बात पर हँसे कि...

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