Monday, June 20, 2022

नयी शुरुआत

लिखने की प्रबल इच्छा। बहुत देर से खुदको बस विचारों के आसमान में विचरते देखना। सामने होते हुए भी आँखें फेर लेना। हाथों का कांपना। हाथ लिखना चाहते हैं। पर मैं रोके रहता हूँ। देखना चाहता हूँ कि कबतक रोक पाऊँगा। फिर आखिरकार आ जाता हूँ। सारा कुछ कह देना चाहता हूँ।

अभी रास्ते में क्या क्या सोच रहा था! अब सब कहाँ गया? कोई हिसाब है क्या। बटोरबक्स। ये शब्द मन में गूँजता सा। कमरे में घूमता सा। फिर पिता से बहस हुई। उसके बाद हम दोनों के बीच एक सुर तन सा गया। उस सुर के छिड़ते ही कुछ हो जाता है आस पड़ोस को। पूरा माहौल एक अजीब से रहस्य से घिर जाता है। फिर कुछ देर बाद पिता की आवाज़ आती है। नाम लेने कि और सब वैसा हो जाता है, जैसा पहले था।

घर में बहुत समय बाद लौटो तो सब धुला धुला सा महसूस होता है। आश्चर्य। पर फिर कुछ दिनों में एकसमता आ जाती है। वही पुराना। क्या है कि नए पर रोज कि धूल चढ़ जाती है। आँखें अभयस्थ हो जाती हैं रोज के आश्चर्य से और फिर सब सामन्य हो जाता है।

आजकल अजीब से बुखार मे घूमता हूँ। आँखें चिपकी रहती हैं। क्या ढूँढता हूँ पता नहीं। हलकापन। फिर से? नहीं हल्का हूँ। शायद मुझे जीवन में एक् संबंध में तनाव चाहिए ही है जिसके तार छेदते ही कुछ ऐसा कंपन या सुर निकले की सब हिल जाये। हम अपनी त्रासदी खुद ढूंढते हैं। कमसेकम मैं ढूँढता हूँ।

बहुत दिनों से खुदकों एक पिंजरे मे बंद करके रखा था। मन है कि सब खोल दूँ। शरीर में अजीब सी थकान भरी हुई है। क्या वो यहाँ दिख रही है? मैं बहुत सरल खोज रहा हूँ। ऐसा जो इतना हल्का है कि जमीन से डेढ़ इंच ऊपर उठाकर रखे। कहानी नहीं, सच। कहानी का रूप ले ले तो ठीक है।

उनको पढ़ रहा था। और मुझे दिखा आश्चर्य बस ये है कि वो जो अपने मन मे सोच रहा है कि जैसा हो रहा है, वो गूढ है। मतलब हो कुछ और भी रहा है। जो उसे नहीं दिख रहा। बाद मे सब उसे बताते हैं कि वैसा हुआ था और वो सोचता है कि वो सरल सा दिखने वाला इतना रहसमई था। शायद मेरे आश्चर्य का बीज यहीं काही है। आश्चर्य यही है। मेरा संसार बहुत आश्चर्य से भरा है बस मुझे बाहर की दृष्टि चाहिए। अपने मे सीमित दृष्टि से देखता हूँ तो कुछ दिन मे आश्चर्य समाप्त हो जाता है।

आजकल घर में रहते हुए भी लगता है कि कड़ी धूप में रहता हूँ। छाया कि तलाश में इधर उधर भटकता हूँ। कहानियों में, किस्सो में। जिस समय जो कहानी चाहिए वो मिल जाये तो इतना सुख है कि पूछो मत। जैसे कड़ी प्यास में शीतल जल का मिलना जो मीठा लगे। क्या कहानी में मैं प्यास बुझाने के लिए वो मीठा पानी ढूंढ रहा हूँ। उन्होने लिखा कि वो त्रासदी का इंतज़ार कर रहे हैं, जिसके बाद जीवन शुरू हो। क्या मेरे साथ भी वैसा ही है? मैं किसका इंतज़ार कर रहा हूँ। रह रहकर एक डर पनपता है पर उसे पालने में इतना मजा है कि पूछो मत। जैसे पिता बिच्छू पालते थे। पता होता है कि इसे कितना भी पालो आखिर में डंक मारेगा ही। और पीड़ा होगी। ठीक वैसे ही डर हैं, उन्हें पालने पोसने से खुद को रोका नहीं जा सकता, और अंत में वो पीड़ा का डंक मारेंगे ही। क्या हो अगर डंक न लगे, जिस डर को इतना पाला, इतना पोसा वो बाद में मृत निकले तो। अफसोस? या सुख। शायद अफसोस। जिस समाज से मैं आता हूँ वहाँ नफा नुकसान बहुत देखा जाता है। पिता होंगे तो कहेंगे कि बताओ इतना समय और खर्चा किया और बदले में कुछ भी नहीं मिला। नुकसान का अफसोस रहेगा।

दिख रहा है कि मेरे संबंध शब्द और स्पर्श के पुल से बने हैं। एक एक शब्द को कस के पकड़ के मैंने पुल बनाए हैं जिन पर मैं और दूसरा मिलते हैं। फिर कुछ समय में उस पुल के पुराने होने पर शब्द झरते रहते हैं। जर्जर होकर। फिर चुप्पी आती है। मैं चुप्पी से झरे हुए शब्दों कि जगह भरने की कोशिश करता हूँ पर नहीं हो पाता। फिर एक दिन ये पुल गिर जाएगा और संबंध... हम दोनों के बीच खाई रह जाएगी। इसमे कभी कभी एक रस्सी का होना भी दिलासा देता है।

समय को पकड़ने की जद्दोजहद में कुछ हाथ नहीं हाथा। मैं रेखा के बारे में नहीं लिखना चाहता। क्या खोलना है? कितना जीवन है। अचानक से धूप छाया में बादल जाती है जैसे ही सड़क पर चलता हूँ। एक पेड़ के नीचे से गुजरने के बाद छाया लगातार बनी रही। ये आश्चर्य है। जैसे पेड़ की छाया मेरे साथ चलने लगी। पर ये भ्रम कुछ देर में ही टूट गया। धूप आ गयी। पेड़ अगर बड़ा होता तो कुछ देर छाया और साथ रहती। पेड़ चल भी नहीं सकता। मैं पेड़ तक वापस जा सकता हूँ। पर छूटे हुए पेड़ों के पास बार बार वापस कैसे जाएँ? क्या जाया जा सकता है?

जगहों के दुख जगह छोडने के साथ नहीं छूटते। वो बने रहते हैं वहीं। मन में भी जगह होंगी। वो जगह तब अपनी उपस्थिती दिखाती होगी जब वापस उस जगह पहुंचुंगा। मैं उसका सामना करने से डर रहा हूँ। मन मे अगर जगहें हैं तो फिर पेड़ भी होगा। छाया भी होगी। पर छाया में सुनहारपन नहीं है। चमक धूप मे है तो फिर धूप ही दिखती है। क्या खुदकों अभयस्थ किया जा सकता है कि मन के भीतर भी छाया साथ में रहे? इसमें आश्चर्य है, मैं बस पकड़ नहीं पा रहा हूँ।

इन दिनों का जीवन लग रहा है कि आश्चर्य बहुत पास में घट रहा है बस पकड़ में नहीं आ रहा। और शायद मैं पकड़ना भी नहीं चाहता। क्यूँ? क्यूंकी आश्चर्य हाथ में आते ही सामान्य हो जाएगा। क्या आश्चर्य का आश्चर्य बने रहना मेरे हाथ में है? कोशिश यही है।

रसकोलनिकोव की याद आती है। उसका आधा समय बुखार में गुज़रा। अभी पिता की आवाज़ आई कि पानी बरस रहा है। एक मन है कि उसमें भीगन जिया जाये, पर यहाँ से उठने का मन नहीं। ये दो हिस्सों में बांटना हमेशा होता रहेगा। एक है जो मुझसे प्रेम करती है। उसकी call आ रही। मैं उससे प्रेम करता हूँ। पर अभी मैं लिखना चाहता हूँ। देर तक। क्या लिखुंगा पता नहीं। दूसरी कॉल। कुछ बेहद जरूरी हुआ तो? सहारा बनने की प्रवृति के चलते हर कुछ देर में अपनी उपस्थिती दर्ज करा देना चाहता हूँ। ये कहाँ तक ठीक है। क्या हम कहीं भी जा सकते हैं? यहाँ।

मैं वो दृश्य लिखना चाहता हूँ जिसमें आश्चर्य हों। निजी जीवन के भीतर के सामान्य से आश्चराया। जादू नहीं। जादू में आश्चर्य है, पर जादू झूठ जैसा दिखता है। आश्चर्य सच है। उसे छु सकता हूँ। उसका स्वाद मीठा है। जैसे कि अथाह प्यास में शीतल पानी का। उससे गला तर होता है।

जैसे वो जब अपने पिता के साथ जा रहा था तो पिता रास्ते में ढंग से न चलने वालों पर बहुत झुँझलाते हैं। उसे ये बड़ा आश्चर्य प्रतीत होता है। क्यूंकी हर कोई अपने ढंग से सड़क पर चल रहा है। ये हमारे बनाए हुए नियम हैं कि हर कोई ऐसा चले पर तब भी हम अपने मन से चलते हैं। पिता भी ढंग से नहीं चलते, पर दूसरे पर झुँझलाते हैं कि वो ढंग से नहीं चल रहा। यहाँ हर किसी को दूसरे की गलती क्यूँ दिखती है? और बड़ी बात है हम सीना तान कर दूसरे की गलती बताने के लिए तत्पर रहते हैं। इसमें बड़ा होने का भ्रम बना रहता है!! बड़ा क्यूँ बनना है?

क्या एक कहानी हो जिसमें एक को लगे कि उसे बड़ा बने रहना है। वो रास्ते खोजता रहे बड़ा बनने के। पर कितना बड़ा? हर बड़े के ऊपर एक बड़ा मौजूद है। वो उस सारी शृंखला के सबसे ऊपर पहुँचने की जद्दोजहद में लगा रहे। ये कहाँ तक संभव है?

सुबह से मन इतनी कहानियों में भटक रहा है कि पूछो मत। मुझे पता था कि मुझे उनका उपन्यास उठाना है। पर सीधे उनके पास जाने के बजाए मैं दूसरे दरवाजों को तलाशने में लग गया। anais nin का नाम सुबह से दिमाग में गूंज रहा था तो उनको पढ़ने में लग गया। पर मन नहीं लगा। फिर दूसरा कुछ। कोशिश की कि खुदकों कहीं और घेरे में डाल दूँ पर पकड़ नहीं पाया। ये कैसी कोशिश है? शायद अपनी इच्छा के स्वाद को ढंग से चख लेना चाहता था। फिर अंततः उनके पास पहुंचा। ऐसा लगा जैसे कि खुद को दूषित करके लाया हूँ। साफ नहीं ला सकता था। क्यूँ? क्यूंकी अब यहाँ एक एक कर सब उतार दूंगा। खुद को नंगा कर दूंगा। साफ। कुछ पन्ने पढे और लगा कि हाँ, यही तो चाहता था। ठीक वैसे जैसे बहुत दिनों तक चलने के बाद जब एक नदी का एकांत किनारा मिलता है तो एक दम से उसमें नहीं कूदते। उसके पास बैठकर बहुत देर तक बहते पानी को देखने में जो सुख मिलता है। हमें पता है कि हम कुछ देर में इस पानी के भीतर होंगे। ये लहरें शरीर पर अपना असर करेंगी। पर उस उत्सुकता को अपने शरीर पर नाचते देखने का जो सुख है वो असीम है।

बाहर इतनी कहानियाँ घट रही हैं कि बहुत सुख है। पर इस कहानी के साथ में मैं कुछ और भी चाहता हूँ। एक नदी में गोता लगाने के बाद जब बाहर आऊँ तो दूसरे किनारे निकलूँ, जहां की जमीन दूसरी हो। अलग हो। वहाँ अलग फूल खिलते हों। तुम समझ रहे हो। मैं समझ रहा हूँ? मैं देर तक डूबा रहना चाहता हूँ। पिछले दिनों डूबा भी हूँ। रसकोलनिकोव एक दिन अचानक सोनिया को देखकर रोने लगा। वो पूरे समय नहीं रोया, फिर जाकर रोया। क्या वो तबसे सोनिया के पास बहती नदी के किनारे बैठा था, ठीक पल का इंतज़ार करता हुआ? उसके इंतज़ार को देखना आश्चर्य है। क्या एक पूरी कहानी इंतज़ार की हो सकती है? कैसा इंतज़ार?

कहीं पढ़ा था कि हर कोई अपने जीवन में इंतज़ार ही कर रहा है। किसका? मैं त्रासदी का या फिर त्रासदी के आश्चर्य का। कुछ त्रासदी तय हैं। बस उनके समय का अनुमान नहीं है। ऐसी त्रासदी को जीने के बारे में मन में कई कहानी गढ़ राखी हैं। बार बार उनके पास भी गया हूँ कि जब ये त्रासदी घटेगी तो तब मैं क्या क्या करूंगा, दूसरा कैसे करेगा, क्या क्या महसूस होगा। उसे बार बार जाकर ठीक भी किया है। detailing. पर हर त्रासदी की तैयारी कुछ समय में अपना रस छोड़ देती है। सब फीका हो जाता है। एक तरह की उदासीनता आ जाती है। कि जिस दिन आएगी उस दिन उससे मिलेंगे। त्रासदी बहुत सुंदर हो सकती है। खुशी जैसी। दोनों को एक साथ देखने का सुख।

बहुत दिनों से कोई कहानी नहीं लिखी। कोई दृश्य नहीं। अभी मैं भीतर को समझ रहा हूँ। सुलझा रहा हूँ। बहुत कुछ इतना जटिल हो गया है भीतर कि लगता है कि पहले वाला मैं उन गांठों में कहीं बहुत पीछे छूट गया है। क्या मैं उसे पा सकूँगा? फिर लगता है कि पाना ही क्यूँ है? यही सत्या है अभी का, बस मैं उसे छु नहीं पा रहा। आजकल पैरों में बहुत दर्द रहता है। क्या मैं मन में बहुत चलता हूँ?

उसके पैरों में बहुत दर्द रहता था। वो सपनों में बहुत चलता था। उसकी माँ कहती थी कि तू सपनों में बोलता है कि कुछ दूर और, कुछ दूर और। वो कहाँ तक चलता था? उसे याद नहीं रहता था, पर ये पता था कि वो चलता बहुत है। उसने उपाय सोचा और रातों में पैरों में रस्सी बांध कर सोने लगा। एक दो दिन दर्द नहीं हुआ पर फिर वही शुरू। सुबह उसके पैरों की रस्सी खुली मिलती। माँ कहती मैं नहीं खोली। वो सोता रहता, फिर रस्सी कैसे खुलती। उसके दोस्त ने कहा कि तुम पैदल मत चला करो। ऐसा करो, किसी गाड़ी के अंदर सो जाओ, तब तुम चलोगे भी तो लगेगा गाड़ी की सवारी कर रहे हो। पैर नहीं थकेंगे। तो वो एक दिन मोटरसाइकल पर सोया। आस पास खात लगाई गयी, जिससे वो गिरे तो ज्यादा चोट न आए। वो नहीं गिरा पर उसके पैरों में बहुत दर्द था। दूसरे दिन सबने देखा कि गाड़ी में पेट्रोल नहीं था। शायद इसलिए वो सपने में गाड़ी को खींच रहा होगा। पुछने पर कह भी रहा था कि हाथों में भी दर्द है। अगले दिन गाड़ी में पेट्रोल भी डाला गया। पर फिर भी जागने पर उसके पैरों का दर्द बना रहा।

उसकी माँ ने मज़ाक में कहना शुरू कर दिया कि तू जब इतनी दूर जाता है तो कुछ खरीद लिया कर। वापस लेकर आ जाया कर। पर सपने से वापस कैसे आते हैं? और सामान खरीद भी लिया तो लाएँगे कैसे। उपाय सोचा गया। उसने कहा कि वो सपने में देखेगा कि क्या क्या खरीदा है और फिर हूबहू वही चीज़ें खरीद लेंगे। शायद वो तब जा पाये।

कहानी जैसे ही अपनी पटरी से भागती है, एक कसैला सा स्वाद मुंह में आ जाता है। जो न थूकते बंता है और न उगलते। अजीब सा कंकदनुमा कुछ। अब वापस जाने में बहुत मेहनत है और पैरों में दर्द। शायद मैं कहानी में बहुत चल लिया। कुछ देर बैठ लेता हूँ।

देहरादून डायरी

21 फरवरी 2023, 6:45 am मैं बच रहा हूं क्या? लिखने की तेज इच्छा के बावजूद रोकता रहा और अंत में हारकर यहां आ पहुंचा! मुझे हार से प्रेम होता जा...