जो जी रहे हैं और जो जीना है की बीच की परिधि पर खड़े खुद से सवाल जवाब करता एक अदना सा इंसान और उसकी खोज।
Sunday, January 8, 2023
एक बात
एक बात लिखूं और मुक्त हो जाऊं... कुछ कह दूं और सारी त्रासदी से झाड़ लूं जीवन के कपड़े... सारा भीतर बाहर उगलकर हल्का हो जाऊं और कह दूं कि मैं जीत गया। हार को गले लगाकर देर तक रोऊं और जीत को चुपके से सुनाऊं लोरियां... धूप की बात करूं और छांव का सपना देखूं... कहीं से चिड़िया आए और सुनाए अपने मन की बात मैं देर तक हंसता रहूं जैसे हूं उसका सबसे घनिष्ट सखा... अपनी ही आंखों से खेलूं आंख मिचौली। सार कुछ में एक बिंदु हो जाऊं और देर तक करूं अपना विस्तार फिर भी रहूं उतना जितने में समा जाए समय... समय की यात्रा में देर तक खुद को बूढ़ा करूं और कहूं जीवन जिया था... मुमकिन है?
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देहरादून डायरी
21 फरवरी 2023, 6:45 am मैं बच रहा हूं क्या? लिखने की तेज इच्छा के बावजूद रोकता रहा और अंत में हारकर यहां आ पहुंचा! मुझे हार से प्रेम होता जा...

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कहना था इसलिए कह रहा हूं। Happy New Year!! दो दो जगह खुद को बांटकर चलता हूं। कौनसा सच कौनसा झूठ। चलो छोड़ो। ऐसे ही जीते हैं। कविता पढ़ोगे? *...
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कुछ बीत नहीं रहा सखी। समय अटका पड़ा है उस एक क्षण में जब सब कुछ घट जाना था लेकिन नहीं घटा। और उस अटके पड़े समय में अब सड़ने की बू आ रही है। ...
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शाम दिन भर जीने की थकान के साथ आती है। जीवन तब घुटने टेकता सा दिखता है। तरह तरह की टीस दिखती हैं। छायाएं बीते हुए की जब लगा था मैं खुश हूं। ...
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