21 फरवरी 2023, 6:45 am
मैं बच रहा हूं क्या? लिखने की तेज इच्छा के बावजूद रोकता रहा और अंत में हारकर यहां आ पहुंचा! मुझे हार से प्रेम होता जा रहा है। हर जगह अपनी हार को साथ लेकर चलना। पास की सीट खाली है। ट्रेन चल रही है। लगता है हार दूसरी सीट पर बैठी एक अनजान लड़की जितनी ही सुंदर है। इसलिए मेरे पास बैठी है। मुझमें अजीब सी उत्सुकता है उसका हाथ पकड़ने की। दूर वहां क्या मिलेगा के सपने गुदगुदाते हैं। आज पूरी रात सोया नहीं। अपनों के बीच रात गुजार दी। बहुत हँसी खर्च की जिसके सिक्के मेरे पास बचे थे, इसका अंदाजा नहीं था।
मुझे खुद से बातें करनी हैं। ऐसी। इसलिए दूर जा रहा हूं। यहां से। जहां मुझे लोग जानते हैं। अनजानों के बीच। एकांत की तलाश में। आशा है साथ में। और आशा से बहुत प्रेम है।
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इतनी सारी इच्छाओं के बीच अपने को फंसा सा पाता हूं। मुझे असल में ये दुनिया समझ नहीं आती। कभी कभी आंखों के आगे सब चल रहा होता है और मुझे लगता है कुछ है इन सबके बीच जो हमेशा मेरी पहुंच से छूट जाता है। एक दृश्य के दूसरे दृश्य के बंधने के बीच कोई एक सूत्र है जिसको ढूंढने में मेरी आंखें मेरे हाथ बन जाती हैं पर अफसोस हाथ खाली लौट आते हैं।
फिर अचानक से कुछ पड़ता हूं। बहुत निजी। या देखता हूं। या सुनता हूं और लगता है सबका अर्थ उसी रचना में है। जैसे अभी ट्रेन खड़ी है। हल्की धूप है। लोग टहल रहे हैं। कुछ समझ में ना आने की उलझन के चलते बैग उठाकर किताब निकालने लगा। बादल सरकार की प्रवासी की कलम से ही उठा ली। प्रवासी तो मैं भी हूं... अपने से ही प्रवासी... उसको पढ़ते पढ़ते बीच में कई जगह मिली जब लगा ठीक यही तो है जो मैं हूं, जो अनुभूति मुझे हो रही है. पर उन्हें ये सब लंदन में महसूस हुआ, अपनों से दूर। मैं तो अपनों के बहुत पास हूं। अपने देश में... फिर? ये कैसी जमीन है जो बादल दा और मैं एक साथ साझा कर रहे हैं?
ट्रेन चल निकली। एक गांव में नदी गंदी थी। उसके पास के टीले के पास कूड़े का ढेर था। टीला चौड़ा था तो बहुत बच्चे गेंद से खेल रहे थे। एक आदमी अकेला शांत बैठा था। अपने एकांत में। मैं लगातार उसे देखने लगा। मुझे ऐसे एकांत के लिए इतना दूर जाना पड़ रहा है। ये यहीं कूड़े के ढेर के पास, गंदी नदी के किनारे, बच्चों के खेल के बीच उस एकांत को जी रहा है। ये मुझसे कहीं बेहतर स्थिति है। मुझे अपने पर हँसी आ गई।
दोस्त कहता है कि मैने खुद को बहुत seriously लेना शुरू कर दिया है। क्या मतलब है इस बात का? मैं बहुत खोजने के बाद भी इन बातों का अर्थ नहीं निकाल पाता। कैसे लेते हैं खुद को हल्के से? अगर मैं ही अपने प्रति गंभीर नहीं तो दूसरे कैसे होंगे? पहली बात तो दूसरों से अपेक्षा भी नहीं है। पर अपने से तो की जा सकती है? या नहीं...
बादल दा कहते हैं - किसी को लिखा पत्र उसकी संपत्ति हो जाता है। क्या मैं वो दूसरा आदमी हो सकता हूं कि खुदको ही पत्र लिखूं और अपनी संपत्ति बना सकूं? शायद इसलिए इतनी दूर जा रहा हूं। बहुत आशा है खुदसे। इतनी कि अभी अपने लिए आंखें नम हैं। पूरी रात का जागरण आंखों और मन पर असर कर रहा है पर आशा बहुत है।
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मैंने इस बार जानबूझकर उनका हाथ छोड़ रखा है। इस एकांत के अंधेरे में मुझे अकेले विचरना था। उनका होना साथ में एक किस्म की सहूलियत दे देता सो हाथ छोड़ दिया। तब क्या खुदको छू पाऊंगा? खुद के भीतर झांक पाऊंगा... ये परीक्षा है... देखते हैं परिणाम क्या होगा।
ट्रेन बहुत देर से रुकी पड़ी है। मैं अधीर हो रहा हूं... सामने तालाब है जिसमें बतख तैर रही है... एक बगुला है जो ध्यान लगाए बैठा है... मन इनमे से किसी पर भी नहीं टिक रहा। कहने के लिए कह सकता हूं कि नींद पूरी न होने की खुमारी है... पर सोचा है कि इन तीन दिनों में खुद से झूठ नहीं बोलूंगा सो सच खोज रहा हूं... नहीं पता... असल में कुछ नहीं पता... बस चारों तरफ अराजकता... ऐसा लगता है भीतर के पत्थर भरभराकर अपनी जगह से खिसक चुके हैं। इन्हीं पत्थरों को इनकी सही जगह पर लगाने की आशा में इधर निकल पड़ा हूं...
इच्छा है कि वो दिन आएं जब जाने की पूरी तैयारी हो किसी अनजान जगह और आना तय ना हो। वहां पर पूरा जी लेने के बाद वापस आ जाऊं भले ही वो एक दिन की उम्र गुजरे... तब तक इन छुट पुट तय यात्राओं में वो ढूंढ रहा हूं जो रोज के जीवन से गायब है... कोई जवाब में कान में फुसफुसाता है - तुम!!
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ट्रेन चल पड़ी। और मैं बच्चे सा खुश होकर बाहर झांकने लगा... लगातार चलते रहने में एक सुख है... क्या सारी उलझन इस बात की है कि मेरा जीवन रुका हुआ है? ऐसा सच में है क्या?
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हरियाली की सुरक्षा में खड़े इंद्र के वज्र जैसे ये लंबे पेड़ सूखे क्यों हैं? कोई मेरे गले के भीतर से चीख कर पूछता है। ट्रेन आगे बढ़ जाती है। दृश्य पीछे छूट जाता है। कोई जवाब नहीं आता।
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पहाड़ देखते ही भीतर कुछ कोमल उपजा। मैंने उसकी कोमलता को महसूस किया। अचानक से लगा मैं रो पडूंगा। इनको देखने की कबसे इच्छा थी। और अब जब बिल्कुल इनके सामने हूं तो क्या कहूं, कैसे कहूं, क्या करूं के सवाल हैं और एक चुप्पी... मैं पहाड़ों के सामने चुप था और वो मुस्कुराकर अपने चुप से मुझसे बात कर रहे थे...
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मैं हमेशा से बच जाना चाहता हूं। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। अपनी सारी कोशिश के बावजूद, मारा मैं ही जाता हूं। ऐसे में अपने बचने की इच्छा पर हंसी आती है। और बचकर करता भी क्या हूं? मारे जाने के सपने में खुद को हीरो की तरह देखता हूं। ये एक अजीब किस्म का खेल है।
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कहानी की झलकी सपने में दिखी थी। उसे वैसा का वैसा उतारने की इच्छा से उंगलियां कांपने लगीं।
// वो धूप में बैठे थे। आंगन में बच्ची खेल रही थी। फरवरी की ढलती धूप थी। किचन में खाना बन रहा था। मैने देखा और पूछा कि बच्ची की मां कहां हैं। उन्होंने ऊंघते हुए पहले मुझे देखा। फिर घर के आंगन को और फिर बच्ची को। बच्ची पर उनकी आंखें ऐसे ठहरीं जैसे पहली बार उसे देखा हो। फिर मुझे देखकर बोले - इसकी मां नहीं है।
आंगन के बीच से एक हंसती हुई जवान औरत सुंदर कत्थई साड़ी में बच्ची के सिर पर हाथ फेरकर चली गई। वो अब भी बच्ची को देख रहे थे।
और ये?
ये कौन?
जो अभी गईं... वहीं तो हैं इसकी मां।
उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं पागल हूं। विश्वास का एक तिनका तक उनकी कड़ी आंखों में नहीं था।
कैसी बातें कर रहे हो? इसकी मां नहीं हैं तो नहीं हैं। तुम्हें वहम हुआ होगा। पानी पी लो।
ये क्या है? मैने अभी बच्ची की मां को कत्थई साड़ी में देखा है। अब कैसे विश्वास दिलाने? क्या ये सब मिलकर मेरे साथ मजाक कर रहे हैं?
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पानी नहीं नापता गहराई कि कितना भरना है
अपनी क्षमता में ढलता जाता है
ये पैर हैं जो खाते हैं चोट
एक चेहरा पत्थर का रोया नहीं जबकि
आंख भीगी थी और आस पास था अथाह पानी
पानी ने पत्थर काटे,
पत्थर अपने जैसों के लिए रो रहा 5ह
सुनो गर्जना पानी की
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जीने के लिए इच्छा कच्चा माल है। उसमें फिर इच्छा को करने का कर्म पकाने का काम है। तब जाकर जीवन जी पाते हैं। यहां पहुंचते ही होटल लिया। तैयार हुआ और घूमने निकला। सुंदर शहर है। मेरा शरीर पराया नहीं महसूस कर रहा था। घूमते घूमते फॉरेस्ट रिजर्व घुमा। दूर दूर तक फैला मैदान। ब्रिटिश लोगों के द्वारा बनाई गई बिल्डिंग। हम कितना भी उन्हें कोसें, पर उन्होंने बहुत कुछ दिया भी है हमें। भव्यता। अलग तरीके की। ऊंची दीवारें जिनसे इतिहास टपकता है। जब धूप की ढलती लकीरें उस पर पड़ती थी, तो लगता था कि ये धूप ने सब देखा होगा। और आज... आज हम क्या कर रहे हैं?
फंगस के म्यूजियम में अजीब सा अनुभव। कितने तरीके के जीवन हैं हमारे आस पास। इतना अदभुत कि दिमाग में जब्त नहीं हो सकता। छोटे छोटे रेशों से मिलकर कितना कुछ बड़ा बनता है।
फिर दिखा वो... इतिहास का एक पेड़। 3 मीटर के दायरे में फैला देवदार के पेड़ का टुकड़ा। ये देवदार हमारा पूर्वज है। 700 साल का पूर्वज। उसके सामने खड़ा हुआ और कुछ ही देर में रोने का मन किया। उसकी कुंडलियों में कहीं गहरे रंग की छाप थी। बताने के लिए म्यूजियम ने देश में हुई घटनाएं लिख रखी थी। और मुझे लगा ये सबका साक्षी रहा है। सतत जीवन की तरह। पेड़ों में कितना धीरज है। इतना विशाल। बहुत रोकने के बाद भी मेरी उंगलियां उसको छूने लगीं। ये क्या है जिसे छूने की इच्छा से मन भरा हुआ था... विशाल इतिहास... हम इससे बड़े नहीं हैं। क्या इसने कभी चाहा होगा ये कभी साक्षी रहे? और अब म्यूजियम के एक हिस्से में अपने इतिहास के साथ लोगों के कौतूहल की वस्तु... कैसे इस बात की नजरंदाज करें कि ये कभी जीवित था... उस जीवन के निशान इसपर अंकित हैं। ये मुझसे, हमसे बहुत बड़ा है... क्या इस पर माथा टिका कर बैठ जा सकता है... मुझे पेड़ जैसा धीरज चाहिए।
रॉबर्स केव में धूप छनकर आ रही थी। पत्थरों को कुचलते हुए आगे बढ़ा। पानी के धार के उलटी दिशा में। देर तक। थकान अभी भीतर थी लेकिन उसमें जाने का उत्साह उससे ज्यादा। कितना संभालकर चलने लगते हैं खतरे के सामने... खतरा किस बात से, कि गिरेंगे तो चोट लगेगी, मर सकते हैं!! जीने की इच्छा से ही हमारा हर चुनाव तय होता है। बहुत देर तक अंधेरे कोने में बैठकर उन गीले तराशे हुए पत्थरों को छूता रहा। झरने के स्वर का नाद इतना था कि भीतर सब शांत हो गया। इतना शांत कि सोचने को भी कुछ नहीं... क्या मैं यहां सोचने से मुक्ति के लिए आया हूं? असल में सारी जड़ तो सोचने की है... असीम सोचना... बहुत आगे एक पत्थर... एक बूढ़े इंसान की शक्ल... आंखें भीगी। मैने पानी हाथ में लेकर उसका चेहरा धो दिया। उसे देखता रहा। अकेला होता तो उससे कुछ बात करता... करने की कोशिश की लेकिन हम दोनों हंस रहे थे भाषा की कमी के चलते। पानी अपनी जगह ढूंढ लेता है। वो जितनी जगह मिलती है उतने में धीमे से आगे बढ़ता है, एक हम हैं जो रुकते ही नहीं, हम जगह बनाने के नाम पर बस तबाही लाते हैं... वो बस पत्थरों से थोड़ा सा रास्ता मांगता है।
एक खयाल ये भी था कि वो पत्थर इसलिए रो रहा था कि पानी की चोट का दर्द वो अपने आस पास के पत्थरों पर देखता होगा। उसकी वेदना को महसूस करता होगा। उसका मुंह धोकर एक असीम शांति मिली। ऐसा लगा मैने अपना कर्ज चुकाया है। उसके भाइयों पर पैर रखकर चलने का कर्ज। बीच में एक जगह थोड़ी सी लापरवाही से पैर मुड़ गया... पानी बदला ले रहा था उससे उल्टा चलते रहने का। जीवन।
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दूसरे पाले में जीवन दिखता है। ललकारता है। मैं चुप खड़ा हूं। उसे पता है कि मुझे उसकी तरफ आना ही होगा। और वो एक पछाड़ में पटक देगा। ये खेल मित्रता का भी तो हो सकता है। क्या जरूरी है मैं जीवन से लड़ूं... यहां पहाड़ सामने हैं। इच्छा है उनके ऊपर चला जाऊं पर जीवन के अपने नियम हैं... मेरे ही बनाए हुए, उसमें पेट का सवाल है... एक चुनाव में सब बदल सकता है। मैं खेल छोड़कर आगे बढ़ सकता हूं... सोचते ही जीवन दयनीय नजर आता है। प्रेम से बुलाता हुआ। मुझे दिल दुखाना नहीं आता। आता भी है तो उसका गिल्ट बहुत बड़ा है। मैं जीवन के पाले में चला जाऊंगा। मैं प्यार से उसकी तरफ जाता हूं। वो गले लगाता है। पलक झपकते ही मैं जमीन पर पड़ा हूं...
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किस चीज से बच रहा हूं? रह रहकर ये सवाल सामने है... अपने से? अपने चुनाव से? अपने चुने जीवन से? थकान... शरीर में नहीं... भीतर कहीं... बहुत खाली करना है... खाली कैसे करते हैं?
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निर्मल वर्मा सही कहते हैं। यहां भारत में अपना एकांत चुनना पड़ता है जिसके लिए आपके अपने आपको कभी माफ नहीं करते। और उस माफी न मिल पाने का गिल्ट धीमे धीमे हमारे साथ बूढ़ा होता रहता है। कोई पूछ सकता है कि क्या मिलता है दिल दुखाकर... क्या अभी इस उम्र में स्वार्थ करके अपनों का दिल दुखाना इसलिए आसान है क्योंकि हमने अपने अपनों का अकेलापन भोगा ही नहीं है। क्या चुना है मैने?
सुबह सुबह मां का फोन कि घर भी तो आ सकते थे। घर ही तो ढूंढ रहा हूं मां। कैसे समझाऊं अपनों को कि अकेलापन अभी बहुत जरूरी है। एक पल को पुराने की छाया में जाना सब जला देगा... मैं अभी बहुत सी चीजों के लिए तैयार नहीं हूं। पुख्ता कर रहा हूं खुदको। सामने जंगल है। दूर पहाड़ियां हैं। सड़क पर एक पूरा जीवन चलता चला जाता है। कितना अंतर है इस तरफ और उस तरफ की दुनिया में... दोनो के बीच बैठा मैं क्या ढूंढ रहा हूं?.
दूसरों के दुख के समझ के भी क्या किया जा सकता है? उसमें अपनी सहभागिता कितनी है? और मेरा अपना क्या?
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वो अकेले में बैठे थे। शांत। दूर पहाड़ी को देखते हुए। उससे सवाल जवाब करते। उनके पहाड़ों से बात करने की भाषा के बारे में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी।
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नया देखने की इच्छा में एक कमरा दिखता है बहुत छोटा। उसमें दो लोग हैं। दो औरतें। एक बूढ़ी और एक बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी। कर कुछ नहीं रही। बस टीवी पर खबर के आगे बैठी हैं। चुप। टीवी की रोशनी में उनकी झुर्रियां चमक कर रह जाती हैं।
कुसुम : ये कब तक होता रहेगा?
कुमुद : तुमने उससे बात की?
कुसुम : हां। कह रहा है बहुत जरूरी है उसके लिए वहां रहना... और एक दिन के आने से भी क्या फायदा। वो मेरे साथ कई दिन रहना चाहता है।
कुमुद : बहाने।
कुसुम : मैं तो सच मानती हूं। उसकी अपनी जिंदगी है अब। जो कर रहा है सोच समझकर करेगा। तुमने कुछ कहा तो नहीं उससे?
कुमुद : नहीं। मैं कहां ही कुछ कहती हूं।
दोनों हँसते हैं। कुछ देर ने कुसुम टीवी के रिमोट से चैनल बदल देती है। कोई कॉमेडी चैनल दिखता है। टीवी से हंसने की आवाजें आती हैं। पर ये दोनों बस चुप हैं। कुसुम के चेहरे पर आंसू दिखते हैं। कुमुद सीधे टीवी में देखती रहती है। कुसुम फफक फफककर रो पड़ती है। हंसने की आवाज टीवी से आती रहती है। कुछ देर में कुसुम शांत होती है। सामने देखती है।
कुमुद : पानी?
कुसुम : हम्म...
कुमुद : तुम्हें पता है ना तुम चाहो तो उसे बुला सकती हो।
कुसुम : ऐसे नहीं... फिर यहां मेरे पास आने का गिल्ट वो लिए घूमेगा।
कुमुद : गिल्ट।
कुसुम : गिल्ट।
कुमुद : मैंने अपनी लड़की से कह दिया कि मुझे फोन न किया करे।
कुसुम : अच्छा किया। कबसे तुम्हें समझाती थी।
कुमुद : वो तब भी फोन करती है। रोज। तय समय पर।
कुसुम : नंबर बदल दो।
कुमुद : मैं परेशान नहीं हूं। मुझे अच्छा लगता है। शुरू में हमें कितना दुख होता है जब बच्चे हमारी बात न माने। पर अभी... वो ना मानकर असल में मुझे सुख दे रही है।
कुसुम : और तुम?
कुमुद : मैं फोन नहीं उठाती। पूरी एक घंटी बजने देती हूं। फिर फोन कट जाता है।
कुसुम : वो तब भी करती है?
कुमुद : रोज।
दोनों मुस्कुराते हैं। चैनल बदलते हैं। खाना खाते हैं। एक ही प्लेट में। टीवी पर कोई एक्शन फिल्म चल रही है जिसकी आवाज आती है।
कुमुद : आज अच्छा नहीं बना।
कुसुम : ठीक ही है। इतनी दूर खाना नसीब हो रहा है, वही बड़ी बात है।
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यात्रा गलतियां ठीक करना सीखा रही है। यात्रा की गलतियां यात्रा का हिस्सा हैं। अभी ठीक पैर झरने के बीच में हैं। बहुत रात में ठंड होने के बावजूद कांपते शरीर के साथ पैर ठंडे पानी में डाल दिए। सब सुन्न हो गया। पहले जोर की कंपकंपी और फिर... एक गर्माहट शरीर में उठती महसूस हुई। डर और सोची हुई पीड़ा के बाद की गर्माहट.... ऐसे मौकों पर ही लगता है कि जिंदा हूं... अपने डर से थोड़ा सा आगे बढ़ जाना।
झरना पैरों के साथ बह रहा है। उनके शब्दों को पढ़ा... उनकी चुप्पी में झरने के पानी का मौन था, ऐसा मौन जो मेरे अपने शोर को हर थोड़ी में सिर उठाते ही पछाड़ देता है। अच्छा लगता है अपनी हार देखकर। खुश हो लेता हूं कि चलो यहां कि हार मौन दे रही है... ऐसा मौन जिसकी कबसे तलाश थी... अपनों से थोड़ा सा बांटा और बाकी अपने लिए रख लिया... स्वार्थ लेकिन अपनी शर्तो पर... मैं माफ कर देना चाहता हूं खुदको, दूसरों को... आने वाली गलतियों के लिए, पछतावे के लिए, शर्म के लिए, दोष के लिए और जीवन के लिए... पानी से गुहार लगाता हूं कि मेरी माफी की इच्छा दूर तक ले जाए... मैं खाली होना चाहत हूं, शायद हो रहा हूं... उसके बाद का मौन सुनो...
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पानी सब ले जाता है। अपनी धार में। अपने जीवन में। जो पत्थर उसकी ताकत के आगे टिक जाते हैं वो उनके किनारे से रास्ता बना लेता है। बिना किसी गुस्से के। उसे आगे अपनी नदी से मिलना है। उसके लिए रास्ता जितना सुगम हो उतना अच्छा। सुगम की उसकी अपनी परिभाषा है। हर जिए को लेखन करके थोड़ा और सघनता से जीना जीवन के पत्थरों से किनारा करना है। ऐसे मौकों पर खुदको पानी सा महसूस करता हूं। और कितना जियूं?
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झरने की आवाज हमबिस्तर है। बादल सरकार की डायरी में पढ़ा अकेलेपन का शब्द अपना सा लगता है। अकेलेपन के फायदे नुकसान टटोलते वो अपने पास नजर आते हैं। दिशा ढूंढता एक पथराही।
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नशा। लेखन का नशा। अभिनय का नशा। ये सारे तरीके जीवन थोड़ा और जी लेने की इच्छा से उपजते हैं। उतना काफी नहीं है जितना जिया है। जैसे अभी... इस मौन के सपने कबसे देखे थे... और अब जब यहां हूं मौन के साथ तो लगता है, इससे और ज्यादा चाहिए... ये मौन और गाढ़ा होना चाहिए... इसके लिए किताब उठा ली। पढ़ता रहा... जीवन को और गाढ़ा और भीतर जीने में झरने की आवाज लगातार आ रही है... मन है कि अपनी सांसों को सुनूं... क्या चाहती हैं वो? क्या हम कभी अपनी सासों के मौन को समझते हैं...
दूर कितने ही पैदल लोग दिखते हैं। मुझे पैदल घूमना चाहिए... इस कमरे में शांति है... मैं रोना चाहता हूं, देर तक... अकेले में, इसकी इच्छा कबसे थी... शुक्रिया मेरे जीवन मुझे ये मौन इस समय देने के लिए... मैं खुश हूं।
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तितली पढ़ने के बीच में लगा मैं ये सब बातें जानता हूं... ये शब्द मैं पहले पढ़ चुका हूं, इन्हें अभी फिरसे जी रहा हूं... शब्दश:... कितना अदभुत है ये... आश्चर्य जिसे छूने पर गुदगुदी होती है।
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पहाड़ अपनी विशालता में मौन हैं। हम अपने लघु होने में भी इतना शोर लिए हुए हैं। कितना भी शोर लेकर पहाड़ के पास आओ और उतार दो। जिया हुआ इतना भार ले लेता है कि उसे पहाड़ के कदमों में उतारने में समय लगता है। सुबह सुबह ही पहाड़ों में चलना शुरू कर दिया। मेन रोड नहीं। उल्टी तरफ जिधर पगडंडी है।
कुछ देर में सामने की पहाड़ी मेरे कदमों की नकल करती आगे चल रही थी। मुझे हँसी आ गई। एक खेल चालू किया। हर कुछ कदम पर मैं रुक जाता तो सामने वाली पहाड़ी को भी रुकना पड़ता। फिर चल पड़ता। फिर पीछे। ऐसे खेलते खेलते मैं थक गया पर वो नहीं। मैने मुस्कुराकर अपनी हार मानी और आगे बढ़ गया। मेरे हाथ में क्या आया? एक ऐसा खेल जिससे भीतर खुशी मिलती है। सुख जैसी एक चिड़िया पास के पेड़ उड़ गई। देर तक उसे देखता रहा।
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कितना सारा झूठ आस पास इकट्ठा कर रखा है। उसे झाड़ने के लिए बहुत समय लगता है। पहाड़ उसमें वो बुजुर्ग हैं जो धीमे धीमे सब झाड़ देते हैं और हमें पता भी नहीं लगता। उनका कोमल स्पर्श शरीर पर पड़ता है और सब साफ होने लगता है।
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क्या करेंगे हम इतने सौंदर्य का? क्या हम इसका जवाब जानते हैं। अपने पीछे छूटे जीवन का भार लिए कहां तक चल सकेंगे? एक समय आएगा जब सब छोड़ देना होगा, इसकी शुरुआत क्या अभी से नहीं कर सकते?
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बहुत दिनों बाद इतनी अच्छी भूख लगी है। जोरों की। पहाड़ी चाय। ऑमलेट। और मैगी। फिर थोड़ा समय और पहाड़ों की गोद में बीता दूंगा। शाम को वापसी है। यहां आकर धैर्य आ रहा है। क्या इसलिए पहाड़ों के लोग इतने धैर्य वाले होते हैं। समय की चाल यहां बहुत उलट है। इतना चला हूं कि लगता है दिन बीत जाना चाहिए। पर अभी सिर्फ 2 घंटे हुए हैं। इतना जी लिया है कि लगा बहुत साल होने को हैं, पर सिर्फ एक दिन हुआ है। जीना सघन है यहां। क्या ऐसा जीना हमेशा संभव नहीं? नहीं... फिर ये नीरसता ले लेगा। एक जैसा जीवन जीने से बचने के लिए ही तो यहां आया था। लगातार बने रहने की इच्छा कितनी उबाऊ है... चलो खा लेता हूं, फिर और नया जीना है...
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यहां बहुत शांति है। भटकने का डर भी और उत्सुकता भी। सतर्कता एक समय के बाद हाथ छोड़ देती है और फिर कुछ भीतरी महसूस होता है। पहाड़ों के बीच, देहरादून से 6 किलोमीटर ऊपर... मैं क्या हूं जैसे सवाल छोटे लगते हैं। इन सवालों का कोई मतलब नहीं है। ये सब छलावा है...
किस बात की जल्दी है हमें? ज्यादा जीने की, या जो घट रहा है उससे उबर जाने की... क्या हम जस का तस कच्चा जीवन पूरी शिद्दत से जी नहीं सकते?
पड़ोस में एक बूढ़ी पहाड़ी मां सरीखी आ गई... वो अपनी पहाड़ी भाषा में अपने लोगों से कुछ कह रही थी। उनके चेहरे की झुर्रियां अपने बीते समय का आभास दे रही थी। सूरज में चमकते उनके चेहरे ने कितना कुछ देखा होगा... एक मन हुआ उनसे बात करूं, फिर लगा उनसे बात करते ही इसे झूठा कर दूंगा। क्या इन्हें नाम दे सकता हूं - कुसुम। कुसुम ठीक है। नए नाटक या कहानी का पात्र... कल ही तो इस कहानी का जन्म हुआ था और आज ये यहां पहाड़ों में भटकती दिख गई... आश्चर्य... क्या इनसे उनके बेटे का नाम पूछ लूं... नहीं, मैं उनके जीवन में हस्तछेप नहीं कर सकता। बस दूर से देख सकता हूं। कितना मन होता है अपने पात्रों से बात करने का, पर कभी कभी छोड़ देना भी ठीक है। वो दूर दूसरी पगडंडी पर चली गई... मैं उनकी चाल में कहानी का जीवन देखता रहा...
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ये बहुत बड़ा आश्चर्य है। तितली पढ़ते पढ़ते लग रहा है कि मैं ये सब पहले पढ़ चुका हूं। रात का वो क्रम अभी भी बना हुआ है। इसमें ऊब नहीं है। एक कौतूहल है कि कैसे वो सब घट रहा है जिसे मैं पहले पढ़ कर जी चुका हूं। उनके लिखे का मौन, शब्द, उनसे बनी तस्वीरें, उनमें बसी ध्वनि, सब कुछ फिरसे हो रहा है। और मैं इसका सुख अपनी उंलगियों पर छू रहा हूं। किताब ऐसी गलियों से गुजर रही है जो बहुत जानी पहचानी हैं।
मैं यहां बहुत देर रुक लिया हूं। शाम तक स्टेशन पहुंचना है। कितना जीना बाक़ी है यहां? कभी काफी नहीं होगा। इस जगह को शुक्रिया कहता हूं। देर होने में भी सुख है। अंत में क्या लुभाता है... अपने सरीखे वाक्य और जगह...
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यात्रा खत्म पैसा हजम।
लौटते हुए कुसुम फिर दिखी थी। इस बार कुमुद के साथ। मैं बस मुस्कुरा दिया। भटकने का सुख इकट्ठा कर अब वापस जीवन की तरफ मुड़ रहा हूं। क्या कुछ बदला है भीतर जैसे प्रश्न पूछना बहुत जल्दी होगी पर कुछ तो हुआ होगा... ऐसी आशा है।
मैं खुश हूं।
दो पहाड़ सामने सामने थे। एक ने दूसरे से पूछा - चलें। दूसरे ने जवाब दिया - पहले तू चल। और वो दोनों सदियों से खड़े हैं।
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